Friday 30 December 2011

"ब्राहमण समाज "

ब्राहमण समाज
कल मेरे एक ज्येष्ठ भ्राता ने, कहा लिखो तुम कविता,
जिसमे हो ब्राहमण समाज, जिसमे हो पूर्ण पवित्रता,
चलो शुरू करते है कविता की रचना, आप जिसे समझे वास्तव में वाही तो है अपना,
राम कृष्ण की धरती पर कितने समाज है बने हुए,
कितने अल्लाह कितने जीसस है यहाँ हुए,
पर ध्यान से देखा जाय तो है हम एक ईश के बेटे,
ये पृथ्वी भी तो हर जन को है एक सूत्र में समेटे,
पृथ्वी तो भी है एक समाज, जो इतने लोगो को है समा लिया
हमने भी तो है एक समाज, को फसबूक पर बना लिया,
प्राचीन काल से ब्राह्मन सबका अस्तित्व आया है बचाता
कल मेरे एक ज्येष्ठ भ्राता ने, कहा लिखो तुम कविता,
जिसमे हो ब्राहमण समाज, जिसमे हो पूर्ण पवित्रता,...............
कर्मो के आधार पर हमने, सबको अलग अलग है बांटा,
ब्राह्मन, क्षत्रिय, वैश्य और सूद्र, इन सबका है एक ही दाता,
इस्वर ने भी ब्राह्मन को समझा है जनश्रेष्ठ की श्रेणी में,
आप भी समझे आप भी जाने, उसके इस महान जीवन को,
सही शिक्षा तो वही है देता, तो क्यों चाहें और किसी को,
भगवन तक पहुचाने का मार्ग उसी ने दिखलाया,
तो फिर क्यों तुम दूर जा रहे, छोड़ के इस ब्राह्मन समाज को ,
जय श्रीराम, हो या जय श्रीकृष्णा, ली शिक्षा और दिए उपदेश,
वो भी तो भगवान ही थे ना, जिनका स्वयं तो ब्राह्मन भी था और था ये उनका ही तो देश,
वे देना चाहते थे सन्देश इन जन जन और जीवन को,
की कैसे बचाया ब्राह्मन ने इस अखिल विश्व और मानवता को,
दुनिया के इस मनुष्य मात्र को, वही तो असली जन्म दिलाता,
कल मेरे एक ज्येष्ठ भ्राता ने, कहा लिखो तुम कविता,
जिसमे हो ब्राहमण समाज, जिसमे हो पूर्ण पवित्रता,...............
भगवन जी की परीक्षा को, हनुमत जी ही बने थे ब्राह्मन,
अंतर मन से जान लिया, इस बन में है कौन ये ब्राह्मन,
और मै क्या क्या सुनाऊ समाज को, कितनी महत्ता है इस जाति की,
जो सब पापो से मुक्त कराता, वही तो भगवन के दर्शन कराता,
चलो साथ हम एक एक करके, इस समाज को यह बतलाये,
श्रेष्ठ तो वैसे सभी समाज है,, ब्राह्मन समाज अति श्रेष्ठ कहलाये,
बोलो हम सब एक ही स्वर में, एक हमारा है उद्देश्य,
नहीं कोई है दूर ओ बंधू, अब बन गयी है समाज की एक साईट,
चाहे हो अब देश हमारा, या हो पूरा विश्व विदेश,
गर तुमको हो कोई समस्या, या हो कोई अलग कहानी,
आ जाओ तुम ब्राह्मन बंधू , मिलेगी तुमको यहाँ से गाइड,
कोई तुम्हारे दिल की इच्छा, अब तो रह गयी हो बाकी,
ठीक मेरी तरह भी तुम अपना, कविता या कहानी और या सबद या साखी,
हा, एक बात मेरी तुम ध्यान रखो की, प्रयोग हो मर्यादित भाषा,
येही रहेगी तुम सबसे और यही रहेगी हर लोगो से,
और यही साईट की है अभिलाषा,
धन्य हुआ मै मै कविता लिखकर, नहीं तो बस मै हु एक जड़ता,
श्रेष्ठ जनों काशिष है मुझपर, जो लिख पाता हु ये सब कविता,
कल मेरे एक ज्येष्ठ भ्राता ने, कहा लिखो तुम कविता,
जिसमे हो ब्राहमण समाज, जिसमे हो पूर्ण पवित्रता,...............

धन्यवाद
मित्रो और फस्बूक समूह जन

क्षमा : यदि इस कविता की पक्ति में कोई भी त्रुटी पूर्ण वाक्य या कोई वाक्य अधुरा हो तो मै सहृदय क्षमा प्रार्थ हु, और आपके सुझाव सादर निवेदन है !

 
(रचना : संजय पाण्डेय )

Wednesday 28 December 2011

" भजन "(Presented by: Ram Krishna Pandey)

(सुख के धाम कृष्ण और राम )

अंत भला तो जग भला, भला राम का नाम,
तीनो काल है इनके वश में, जो हर सुख के धाम,
है सुख के धाम कृष्ण और राम........
तेरे बस में कुछ भी नहीं है, क्यों इतना इतराता है,
उपदेश दिया जिसने गीता में , क्यों उसको भूल तू जाता है,
हर पक्ति उसकी है सुखदायी, जीवन में न होगे दुखदायी,.
आरुण हुआ जब गीता पथ पर, ध्यान किया जब तुने उनका,
नारायण वे ॐ हो प्रभु जी, दूर करेंगे दुःख का कानन,
भूतकाल कल में जीना छोड़ो, आ जाओ वर्तमान में
अगर ज्ञान न हुआ हो तुमको, लो तुम ज्ञान कार्यक्रम शक्तिमान में,
शक्तिमान से आशय मेरा बस इतना है, जो ज्ञान दिया उसने है सबको वो क्या इतना कम है,
आगे मै अब क्या लिखता, अब समझ में मुझको नहीं आता
समझदार है आप लोग भी, मै तो जीवन से ही जड़ता,
कोशिश करता हु की मै भी, बन जाऊ एक अच्छा आदमी,
क्या मेरी ये टूटी कविता, लगती है आपको भी प्यारी,
बस आशीर्वाद आपका हो, तो हो जाऊ मै भी कुछ प्यारा,
नहीं तो बस लिखता ही रहूँगा, कविताए न्यारी न्यारी,
अपने अन्दर रखता हु , कुछ अच्छा करने की हरदम,
बस साथ रहे न दूर रहे, तो दूर रहे ये भारी गम,
करता हु मै लिखना बंद, याद करो तुम उसका नाम
अंत भला तो जग भला, भला राम का नाम,
तीनो काल है इनके वश में, जो हर सुख के धाम,
है सुख के धाम कृष्ण और राम........
उसके आगे तुक्ष हु मै, जो जगपावन है नाम सुहावन,
वो है मेरे पुरुषोतम राम !


(बोलो जय श्रीराम, श्री गणेशाय नमः, जय हनुमान, जय माँ दुर्गा, जय श्री हरी विष्णु, आदि देवताओ की जय, )
रचना-संजय पाण्डेय 

Saturday 24 December 2011

Yuva Brahmin Munch

इस सभा की स्थापना का कोईऐसा उद्देश्य नही जो हमारी क्षमता से परे हो ;मुख्यतः एक ऐसे समाज की रचना करनी है जिसकी धारणा "वसुधैव कुटुम्बकम" है अर्थात प्रत्येक प्राणी मात्र में समरसता और सद्भावना की स्थापना है ;आज के बदलते परिवेश में नित नई कल्पनाये जन्म ले रही है और समाज भौतिकता के अंधे मार्ग पे अविरल गतिमान है जिससे अंततः इसका निष्कर्ष विनाश की ओर ले जाएगा ;ब्राह्मण सदैव से सनातन धर्म की ध्वजा का मूल वाहक रहा है और आज फिर से इस जिम्मेदारी को गंभीर रूप से वहन करना उसका नैतिक और सामाजिक कर्तव्य हो चूका है इसलिए इस सभा की स्थापना नितांत आवश्यक थी जिसके द्वारा विश्व के सभी ब्राह्मण एक मंच के नीचे एकत्र होकर पुनः धर्म का शंखनाद कर सके क्युकी ब्राह्मण धर्म भी यही कहता है !!!
सामाजिक न्याय के नाम पर सामाजिक समरसता की जिस प्रकार अनदेखी की गयी उससे समाज में ब्राह्मण का अस्तित्व भी खतरे में दिखता हैं। शायद इसी कारण श्री रामकृष्ण हेगडे ने "ब्राह्मणों को भी अल्प संख्यक" कहा था (साप्ताहिक हिन्दुस्तान, जनवरी ११, १९८७)। स्वामी विवेकानंद ने भी आदर्श राष्ट्र की परिकल्पना करते हुए कहा था कि आदर्श राष्ट्र के लिए पुरोहित का ज्ञान, योद्धा की संस्कृति, व्यापारिक वितरणशीलता और अंतिम वर्ण को समता अत्यन्त अवश्यक हैं। इसके लिए सभी वर्णों को अपने पूर्वाग्रहों का परित्याग करके एक राष्ट्र की कामना से एक दुसरे का आलिंगन करना होगा!!

Friday 16 December 2011

वराह कल्प का पहला मानव 'स्वायंभुव'

वराह कल्प का पहला मानव 'स्वायंभुव'  



अभगच्छत राजेन्द्र देविकां विश्रुताम्।
प्रसूर्तित्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ॥- महाभारत

अर्थात्- सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई। प्रमाण यही बताते हैं कि आदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखण्ड अर्थात् इस ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही हुई।

स्वायंभुव 'मनु' को आदि भी कहा जाता है। 'आदि' का अर्थ प्रारंभ। सभी भाषाओं के मनुष्य-वाची शब्द मैन, मनुज, मानव, आदम, आदमी आदि सभी मनु शब्द से प्रभावित है। यह समस्त मानव जाति के प्रथम संदेशवाहक हैं। इन्हें प्रथम मानने के कई कारण हैं।

संसार के प्रथम पुरुष स्वायंभुव मनु और प्रथम स्त्री थी शतरूपा। इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण वे मानव कहलाए।

मानव उसे कहते हैं जिसमें जड़ और प्राण से कहीं ज्यादा सक्रिय है- मन। मनुष्य में मन की ताकत है, विचार करने की ताकत है, इसीलिए उसे मनुष्य कहते हैं। चूँकि यह सभी 'मनु' की संतानें हैं इसीलिए मनुष्‍य को मानव भी कहा जाता है।

हिंदू धर्म में स्वायंभुव मनु के ही कुल में आगे चलकर स्वायंभुव सहित कुल क्रमश: 14 मनु हुए। महाभारत में 8 मनुओं का उल्लेख मिलता है। श्वेतवराह कल्प में 14 मनुओं का उल्लेख है। इन चौदह मनुओं को ही जैन धर्म में कुलकर कहा गया है।

चौदह मनुओं के नाम: 1. स्वायम्भु 2. स्वरोचिष 3. औत्तमी 4. तामस मनु 5. रैवत 6. चाक्षुष 7. वैवस्वत 8. सावर्णि 9. दक्ष सावर्णि 10. ब्रह्म सावर्णि 11. धर्म सावर्णि 12. रुद्र सावर्णि 13. रौच्य या देव सावर्णि 14. भौत या इन्द्र सावर्णि।

स्वायंभुव मनु एवं शतरूपा के कुल पाँच सन्तानें थीं जिनमें से दो पुत्र प्रियव्रत एवं उत्तानपाद तथा तीन कन्याएँ आकूति, देवहूति और प्रसूति थे। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति के साथ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ। देवहूति का विवाह प्रजापति कर्दम के साथ हुआ। कपिल ऋषि देवहूति की संतान थे। हिंदू पुराणों अनुसार इन्हीं तीन कन्याओं से संसार के मानवों में वृद्धि हुई।

दो पुत्र- प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो पत्नी थीं। राजा उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुए। ध्रुव ने बहुत प्रसिद्धि हासिल की थी। स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था जिससे उनको दस पुत्र हुए थे।

महाराज मनु ने बहुत दिनों तक इस सप्तद्वीपवती पृथ्वी पर राज्य किया। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। इन्हीं ने 'मनु स्मृति' की रचना की थी जो आज मूल रूप में नहीं मिलती। उसके अर्थ का अनर्थ ही होता रहा है। उस काल में वर्ण का अर्थ रंग होता था और आज जाति।

प्रजा का पालन करते हुए जब महाराज मनु को मोक्ष की अभिलाषा हुई तो वे संपूर्ण राजपाट अपने बड़े पुत्र उत्तानपाद को सौंपकर एकान्त में अपनी पत्नी शतरूपा के साथ नैमिषारण्य तीर्थ चले गए लेकिन उत्तानपाद की अपेक्षा उनके दूसरे पुत्र राजा प्रियव्रत की प्रसिद्धि ही अधिक रही।

स्वायम्भु मनु के काल के ऋषि मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलह, कृतु, पुलस्त्य, और वशिष्ठ हुए। राजा मनु सहित उक्त ऋषियों ने ही मानव को सभ्य, सुविधा संपन्न, श्रमसाध्य और सुसंस्कृत बनाने का कार्य किया।

Tuesday 6 December 2011

Brahmin Surnames


Hi Brahmin Friends ,

We are publishing surnames of "Brahmins", we request you to update the database facebook we are missing any surnames of Brahmins.

Tiwari|Tripathi|Mishra| Shukla| Awasthi| Dwivedi| Sharma| Tiwari| Trivedi| Dwivedi| Dubey| Nehru| Tikku| Pandey| Jha| Vats| Kaul| Manwati| Tendulkar| Roy| Mukharjee| Banarjee| Mukhhopadhyay| Bandhopadhyay| Kadju| Shetty| Acharya| Baliga| Bhandary| Bhat| Chitnis| Hegde| Kamath| Karande| Kudva| Kini| Mallya| Nayak| Prabhu| Kulkarni| Gavaskar| Rajadhyaksha| Nadkarni| Wagle| Sukhtankar| Diwadkar| Pai| Shanbhag|Shenoy| Sanzgiri| Rao| Deshpande| Telang| Wagh|  Pilgaonkar| Sabnis| Divekar| Pandit| Saraf| Shenvi| Shenai| Kaikini|Nayak| Keshkamat| Dhempo| Charse| Aambegaonkar| Muzumdar| Palekar| Borkar| Asgekar| Pandikar| Paldikar| Gangolikar| Kalyankar| Varde| Valavalikar| Bharne| Jakh| Khasnis| Pannavallikar| Kopalkar| Harpati| Pisurlekar| Vaidya| Havaldar| Stalekar| Koppikar| Bhandarkar| Chinnarkar| Dhonde| Rege| Mantri| Desai| Samant| Asholdekar| Kudchedkar| Kotambakar| Talwalkar| Malkarnkar| Shirvaikar| Shaldekar, Hodarkar, Baldikar, Savardekar, Salavalkar, Suralkar, Sankordkar| Kholkar| Sankar| Varti| Shisani| Kundekar| Laad| Satyavant| Laad| Dubhashi| Sangdekar| Kendari| Kedari| Kantak| Tanki| Salkar| Usagaonkar| Kakodkar| Bhise| Aathvankar| Bhodse| Patkar| Bhatikar| Devnali| Kenkare| Lavanis| Aaghashikar| Adavalpalkar| Torsekar| Priolkar| Konekar| Kawde| Gunjikar| Khot| Phadnis| Aambye| Dhume| Sheveshavrkar| Chandavarkar| Kolskar| Vidikar| Chakrmani| Talgare| Salgar| Karkol| Punekar| Gokarn| Kalyanpukar| Eslukar| Galvadi| Hervadkar| Tergaonkar| Nabar| Pataavarkar| Dalvi| Dhaymode| Gadnis| Manerkar| Raganekar| Goode| Mandurkar| Nagarsekar| Salelkar| Pavse| Usapkar| Mulgaonkar| Mayekar| Karnik| Deskulkarni| Palekar| Aambye| Kolmule| Nelikar| Kaysulkar| Bastodkar| Vaishnov| Majalkar| Aauarsekar| Aajgoankar| Bhatki| Mahime|Kabadi| Redkar| Kasbekar| Prabhavalkar| Khanolkar| Dhabolkar| Madgeri| Banavalikar|Shet|Ojha

Sunday 4 December 2011


"संक्षिप्त गद्य रामायण कथा"

भगवान राम की जय                                  सीता माता की जय                                   पवनसुत हनुमान की जय

अथ श्री संक्षिप्त रामायण कथा

बालकाण्ड
      भगवान विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्मा जी के पुत्र हैं मरीचि । मरीचि से कश्यप, कश्यप से सूर्य और सूर्य से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ। उसके बाद वैवस्वत मनु से इक्ष्वाकु की उत्पत्ति हुई। इक्ष्वाकु के वंश में ककुत्स्थ नामक राजा हुए। ककुत्स्थ के रघु, रघु के अज और अज के पुत्र दशरथ हुए। जिनकी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा नामक पत्नियाँ थीं। सन्तान प्राप्ति हेतु अयोध्यापति दशरथ ने अपने गुरु श्री वशिष्ठ की आज्ञा से पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया जिसे ऋंगी ऋषि ने सम्पन्न किया। भक्तिपूर्ण आहुतियाँ पाकर अग्निदेव प्रसन्न हुये और उन्होंने स्वयं प्रकट होकर राजा दशरथ को हविष्यपात्र ( खीर, पायस ) दिया जिसे कि उन्होंने अपनी तीनों पत्नियों में बाँट दिया। खीर के सेवन के परिणामस्वरूप कौशल्या के गर्भ से राम का, कैकेयी के गर्भ से भरत का तथा सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। श्री राम आदि सभी भाई अपने पिता के ही समान पराक्रमी थे।
      एक समय मुनिवर विश्वामित्र ने अपने यज्ञ में विघ्न डालने वाले निशाचरों का नाश करने के लिये राजा दशरथ से प्रार्थना की कि आप अपने पुत्र श्री राम को मेरे साथ भेज दें। तब राजा ने मुनि के साथ श्री राम और लक्ष्मण को भेज दिया। श्री रामचन्द्रजी ने वहाँ जाकर मुनि से अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा पायी और ताड़का नाम वाली निशाचरी का वध किया। फिर उन बलवान वीर ने मारीच नामक राक्षस को मानवास्त्र से मोहित करके दूर फेंक दिया और यज्ञ विघातक राक्षस सुबाहु को दल-बल सहित मार डाला। इसके बाद वे कुछ काल तक मुनि के सिद्धाश्रम में ही रहे। तत्पश्चात विश्वामित्र आदि महर्षियों के साथ लक्ष्मण सहित श्री राम मिथिला नरेश का धनुष-यज्ञ देखने के लिये गये। मिथिला में राम ने पत्थर बनी गौतम मुनि की स्त्री अहल्या का उद्धार किया।
      राजा जनक ने अपने यज्ञ में मुनियों सहित श्री रामचन्द्र जी का पूजन किया। राजा जनक की प्रतिज्ञा के अनुसार शिवधनुष को तोड़ कर राम ने सीता से विवाह किया। श्री राम ने भी अपने पिता राजा दशरथ आदि गुरुजनों के मिथिला में पधारने पर सबके सामने सीता का विधिपूर्वक पाणि ग्रहण किया। उस समय लक्ष्मण ने भी मिथिलेश-कन्या उर्मिला को अपनी पत्नी बनाया। राजा जनक के छोटे भाई कुशध्वज थे। उनकी दो कन्याएँ थीं- श्रुतकीर्ति और माण्डवी । इनमें माण्डवी के साथ भरत ने और श्रुतकीर्ति के साथ शत्रुघ्न ने विवाह किया। तदनन्तर राजा जनक से भली भाँति पूजित हो श्री रामचन्द्र जी ने वशिष्ठ आदि महर्षियों के साथ वहाँ से प्रस्थान किया। मार्ग में जमदग्नि नन्दन परशुराम को जीत कर वे अयोध्या पहुँचे। वहाँ जाने पर भरत और शत्रुघ्न अपने मामा राजा युधाजित की राजधानी को चले गये।

अयोध्याकाण्ड
      भरत के ननिहाल चले जाने पर (लक्ष्मण सहित) श्री रामचन्द्र जी ही पिता-माता आदि के सेवा-सत्कार में रहने लगे। एक दिन राजा दशरथ ने श्री रामचन्द्र जी से कहा-
       “रघुनन्दन! मेरी बात सुनो। तुम्हारे गुणों पर अनुरक्त हो प्रजा जनों ने मन-ही-मन तुम्हें राज-सिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया है- प्रजा की यह हार्दिक इच्छा है कि तुम युवराज बनो; अतःकल प्रात: काल मैं तुम्हें युवराज पद प्रदान कर दूँगा आज रात में तुम सीता-सहित उत्तम व्रत का पालन करते हुए संयमपूर्वक रहो।”
       राजा के आठ मन्त्रियों तथा वशिष्ठ जी ने भी उनकी इस बात का अनुमोदन किया। उन आठ मन्त्रियों के नाम इस प्रकार हैं- दृष्टि, जयन्त, विजय, सिद्धार्थ, राज्यवर्धन, अशोक, धर्मपाल तथा सुमन्त्र । इनके अतिरिक्त वशिष्ठ जी भी (मन्त्रणा देते थे)। पिता और मन्त्रियों की बातें सुनकर श्रीरघुनाथ जी ने 'तथास्तु' कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और माता कौशल्या को यह शुभ समाचार बताकर देवताओं की पूजा करके वे संयम में स्थित हो गये। उधर महाराज दशरथ वशिष्ठ आदि मन्त्रियों को यह कहकर कि “आप लोग श्री रामचन्द्र के राज्याभिषेक की सामग्री जुटायें”, कैकेयी के भवन में चले गये।
      राम के राज्याभिषेक होने की बात जानने पर देवताओँ को चिन्ता हुई कि राम को राज्य मिल जाने पर रावण का वध असम्भव हो जायेगा। व्याकुल होकर उन्होंने देवी सरस्वती से किसी प्रकार के उपाय करने की प्रार्थना की। सरस्वती नें मन्थरा, जो कि कैकेयी की दासी थी, की बुद्धि को फेर दिया। मन्थरा ने अयोध्या की सजावट होती देख, श्री रामचन्द्र जी के राज्याभिषेक की बात जानकर रानी कैकेयी से सारा हाल कह सुनाया। एक बार किसी अपराध के कारण श्रीरामचन्द्रजी ने मन्थरा को उसके पैर पकड़ कर घसीटा था। उसी बैर के कारण वह सदा यही चाहती थी कि राम का वनवास हो जाय।
      मन्थरा बोली, “कैकेयी! तुम उठो, राम का राज्याभिषेक होने जा रहा है। यह तुम्हारे पुत्र के लिये, मेरे लिये और तुम्हारे लिये भी मृत्यु के समान भयंकर वृत्तान्त है। इसमें कोई संदेह नहीं है।”
      मन्थरा कुबड़ी थी। उसकी बात सुनकर रानी कैकेयी को प्रसन्नता हुई। उन्होंने कुब्जा को एक आभूषण उतार कर दिया और कहा, “मेरे लिये तो जैसे राम हैं, वैसे ही मेरे पुत्र भरत भी हैं। मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे भरत को राज्य मिल सके।”
      मन्थरा ने उस हार को फेंक दिया और कुपित होकर कैकेयी से कहा, “ओ नादान! तू भरत को, अपने को और मुझे भी राम से बचा। कल राम राजा होंगे। फिर राम के पुत्रों को राज्य मिलेगा। कैकेयी! अब राजवंश भरत से दूर हो जायेगा। मैं भरत को राज्य दिलाने का एक उपाय बताती हूँ। पहले की बात है। देवासुर-संग्राम में शम्बरासुर ने देवताओं को मार भगाया था। तेरे स्वामी भी उस युद्ध में गये थे। उस समय तूने अपनी विद्या से रात में स्वामी की रक्षा की थी। इसके लिये महाराज ने तुझे दो वर देने की प्रतिज्ञा की थीं, इस समय उन्हीं दोनों वरों को उनसे माँग। एक वर के द्वारा राम का चौदह वर्षों के लिये वनवास और दूसरे के द्वारा भरत का युवराज-पद पर अभिषेक माँग ले। राजा इस समय वे दोनों वर दे देंगे।”
       इस प्रकार मन्थरा के प्रोत्साहन देने पर कैकेयी अनर्थ में ही अर्थ की सिद्धि देखने लगी और बोली, “कुब्जे! तूने बड़ा अच्छा उपाय बताया है। राजा मेरा मनोरथ अवश्य पूर्ण करेंगे।” ऐसा कहकर वह कोपभवन में चली गयी और पृथ्वी पर अचेत-सी होकर पड़ी रही। उधर महाराज दशरथ ब्राह्मण आदि का पूजन करके जब कैकेयी के भवन में आये तो उसे रोष में भरी हुई देखा। तब राजा ने पूछा, “सुन्दरी! तुम्हारी ऐसी दशा क्यों हो रही है? तुम्हें कोई रोग तो नहीं सता रहा है? अथवा किसी भय से व्याकुल तो नहीं हो? बताओ, क्या चाहती हो? मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूर्ण करता हूँ। जिन श्रीराम के बिना मैं क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकता, उन्हीं की शपथ खाकर कहता हूँ, तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण करूँगा। सच-सच बताओ, क्या चाहती हो?”
       कैकेयी बोली, “राजन्! यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हों, तो अपने सत्य की रक्षा के लिये पहले के दिये हुए दो वरदान देने की कृपा करें। मैं चाहती हूँ, राम चौदह वर्षों तक संयमपूर्वक वन में निवास करें और इन सामग्रियों के द्वारा आज ही भरत का युवराज पद पर अभिषेक हो जाए। महाराज! यदि ये दोनों वरदान आप मुझे नहीं देंगे तो मैं विष पीकर मर जाऊँगी।”
       यह सुनकर राजा दशरथ वज्र से आहत हुए की भाँति मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। फिर थोड़ी देर में चेत होने पर उन्होंने कैकेयी से कहा, “पाप पूर्ण विचार रखने वाली कैकेयी! तू समस्त संसार का अप्रिय करने वाली है। अरी! मैंने या राम ने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू मुझसे ऐसी बात कहती है? केवल तुझे प्रिय लगने वाला यह कार्य करके मैं संसार में भली-भाँति निन्दित हो जाऊँगा। तू मेरी स्त्री नहीं, कालरात्रि है। मेरा पुत्र भरत ऐसा नहीं है। पापिनी! मेरे पुत्र के चले जाने पर जब मैं मर जाऊँगा तो तू विधवा होकर राज्य करना।”
       राजा दशरथ सत्य के बन्धन में बँधे थे। उन्होंने श्रीरामचन्द्रजी को बुलाकर कहा, “बेटा! कैकेयी ने मुझे ठग लिया। तुम मुझे कैद करके राज्य को अपने अधिकार में कर लो। अन्यथा तुम्हें वन में निवास करना होगा और कैकेयी का पुत्र भरत राजा बनेगा।”
       श्रीराम चन्द्र जी ने पिता और कैकेयी को प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा की और कौशल्या के चरणों में मस्तक झुकाकर उन्हें सान्तवना दी। फिर लक्ष्मण और पत्नी सीता को साथ ले, ब्राह्मणों, दीनों और अनाथों को दान देकर, सुमन्त्र सहित रथ पर बैठकर वे नगर से बाहर निकले। उस समय माता-पिता आदि शोक से आतुर हो रहे थे। उस रात में श्री रामचन्द्र जी ने तमसा नदी के तट पर निवास किया। उनके साथ बहुत-से पुरवासी भी गये थे। उन सबको सोते छोड़कर वे आगे बढ़ गये। प्रात: काल होने पर जब श्री रामचन्द्र जी नहीं दिखायी दिये तो नगर निवासी निराश होकर पुन: अयोध्या लौट आये।
       श्री रामचन्द्र जी के चले जाने से राजा दशरथ बहुत दु:खी हुए। वे रोते-रोते कैकेयी का महल छोड़कर कौशल्या के भवन में चले आये। उस समय नगर के समस्त स्त्री-पुरुष और रनिवास की स्त्रियाँ फूट-फूटकर रो रही थीं। श्री रामचन्द्र जी ने चीर वस्त्र धारण कर रखा था। वे रथ पर बैठे-बैठे शृंगवेरपुर जा पहुँचे। वहाँ निषादराज गुह ने उनका पूजन, स्वागत-सत्कार किया। श्री रघुनाथ जी ने इंगुदी-वृक्ष की जड़ के निकट विश्राम किया। लक्ष्मण और गुह दोनों रातभर जागकर पहरा देते रहे।
       प्रात:काल श्री राम ने रथ सहित सुमन्त्र को विदा कर दिया तथा स्वयं लक्ष्मण और सीता के साथ नाव से गंगा-पार हो, वे प्रयाग में गये। वहाँ उन्होंने महर्षि भरद्वाज को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले वहाँ से चित्रकूट पर्वत को प्रस्थान किया।
      चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने वास्तुपूजा करने के अनन्तर (पर्णकुटी बनाकर) मन्दाकिनी के तट पर निवास किया। रघुनाथ जी ने सीता को चित्रकूट पर्वत का रमणीय दृश्य दिखलाया। इसी समय एक कौए ने सीता जी के कोमल श्री अंग में नखों से प्रहार किया। यह देख श्री राम ने उसके ऊपर सींक के अस्त्र का प्रयोग किया। जब वह कौआ देवताओं का आश्रय छोड़ कर श्री रामचन्द्र जी की शरण में आया, तब उन्होंने उसकी केवल एक आँख नष्ट करके उसे जीवित छोड़ दिया।
      श्री रामचन्द्र जी के वन गमन के पश्चात छठे दिन की रात में राजा दशरथ ने कौशल्या से पहले की एक घटना सुनायी, जिसमें उनके द्वारा कुमारावस्था में सरयू के तट पर अनजाने में यज्ञदत्त-पुत्र श्रवण कुमार के मारे जाने का वृत्तान्त था।
       “श्रवण कुमार पानी लेने के लिये आया था। उस समय उसके घड़े के भरने से जो शब्द हो रहा था, उसकी आहट पाकर मैंने उसे कोई जंगली-जन्तु समझा और शब्दवेधी बाण से उसका वध कर डाला। यह समाचार पाकर उसके पिता और माता को बड़ा शोक हुआ। वे बार-बार विलाप करने लगे। उस समय श्रवण कुमार के पिता ने मुझे शाप देते हुए कहा- “राजन्! हम दोनों पति-पत्नी पुत्र के बिना शोकातुर होकर प्राण त्याग कर रहे हैं; तुम भी हमारी ही तरह पुत्र वियोग के शोक से मरोगे; (तुम्हारे पुत्र मरेंगे तो नहीं, किंतु) उस समय तुम्हारे पास कोई पुत्र मौजूद न होगा।”
      “कौशल्ये! आज उस शाप का मुझे स्मरण हो रहा है। जान पड़ता है, अब इसी शोक से मेरी मृत्यु होगी।” इतनी कथा कहने के पश्चात राजा ने 'हा राम!' कह कर स्वर्ग लोक को प्रयाण किया। कौशल्या ने समझा, महाराज शोक से आतुर हैं; इस समय नींद आ गयी होगी। ऐसा विचार करके वे सो गयीं। प्रात:काल जगाने वाले सूत, मागध और बन्दी जन सोते हुए महाराज को जगाने लगे; किंतु वे न जगे। तब उन्हें मरा हुआ जान रानी कौशल्या 'हाय! मैं मारी गयी' कहकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। फिर तो समस्त नर-नारी फूट-फूटकर रोने लगे। तत्पश्चात महर्षि वशिष्ठ ने राजा के शव को तेल भरी नौका में रखवा कर भरत को उनके ननिहाल से तत्काल बुलवाया।
      भरत और शत्रुघ्न अपने मामा के राजमहल से निकलकर सुमन्त्र आदि के साथ शीघ्र ही अयोध्या पुरी में आये। यहाँ का समाचार जानकर भरत को बड़ा दु:ख हुआ। कैकेयी को शोक करती देख उसकी कठोर शब्दों में निन्दा करते हुए बोले- “अरी! तूने मेरे माथे कलंक का टीका लगा दिया। मेरे सिर पर अपयश का भारी बोझ लाद दिया।” फिर उन्होंने कौशल्या की प्रशंसा करके तैलपूर्ण नौका में रखे हुए पिता के शव का सरयू तट पर अन्त्येष्टि-संस्कार किया।
      तदनन्तर वशिष्ठ आदि गुरुजनों ने कहा- “भरत! अब राज्य ग्रहण करो।” भरत बोले- “मैं तो श्री रामचन्द्र जी को ही राजा मानता हूँ। अब उन्हें यहाँ लाने के लिये वन में जाता हूँ।”
       ऐसा कहकर वे वहाँ से दल-बल सहित चल दिये और शृंगवेरपुर होते हुए प्रयाग पहुँचे। वहाँ महर्षि भारद्वाज को नमस्कार करके वे प्रयाग से चले और चित्रकूट में श्री राम एवं लक्ष्मण के समीप आ पहुँचे। वहाँ भरत ने श्री राम से कहा- “रघुनाथ जी! हमारे पिता महाराज दशरथ स्वर्गवासी हो गये। अब आप अयोध्या में चलकर राज्य ग्रहण करें। मैं आपकी आज्ञा का पालन करते हुए वन में जाऊँगा।”
       यह सुनकर श्री राम ने पिता का तर्पण किया और भरत से कहा- “तुम मेरी चरण पादुका लेकर अयोध्या लौट जाओ। मैं राज्य करने के लिये नहीं चलूँगा। पिता के सत्य की रक्षा के लिये चीर एवं जटा धारण करके वन में ही रहूँगा।”
      श्री राम के ऐसा कहने पर सदल-बल भरत लौट गये और अयोध्या छोड़कर नन्दिग्राम में रहने लगे। वहाँ भगवान की चरण-पादुकाओं की पूजा करते हुए वे राज्य का भली-भाँति पालन करने लगे।

अरण्यकाण्ड
      श्रीरामचन्द्र जी ने महर्षि वशिष्ठ तथा माताओं को प्रणाम करके उन सबको भरत के साथ विदा कर दिया। तत्पश्चात महर्षि अत्रि तथा उनकी पत्नी अनुसूया को, शरभंग मुनि को, सुतीक्ष्ण को तथा अगस्त्य जी के भ्राता अग्निजिह्व मुनि को प्रणाम करते हुए श्री रामचन्द्र जी ने अगस्त्य मुनि के आश्रम पर जा उनके चरणों में मस्तक झुकाया और मुनि की कृपा से दिव्य धनुष एवं दिव्य खड्ग प्राप्त करके वे दण्डकारण्य में आये। वहाँ जनस्थान के भीतर पंचवटी नामक स्थान में गोदावरी के तट पर रहने लगे।
      एक दिन शूर्पणखा नाम वाली भयंकर राक्षसी राम, लक्ष्मण और सीता को खा जाने के लिये पंचवटी में आयी; किंतु श्री रामचन्द्र जी का अत्यन्त मनोहर रूप देखकर वह काम के अधीन हो गयी और बोली- “तुम कौन हो? कहाँ से आये हो? मेरी प्रार्थना से अब तुम मेरे पति हो जाओ। यदि मेरे साथ तुम्हारा सम्बन्ध होने में ये दोनों सीता और लक्ष्मण बाधक हैं तो मैं इन दोनों को अभी खाये लेती हूँ।” ऐसा कहकर वह उन्हें खा जाने को तैयार हो गयी। तब श्री रामचन्द्र जी के कहने से लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक और दोनों कान भी काट लिये।
      कटे हुए अंगों से रक्त की धारा बहाती हुए शूर्पणखा अपने भाई खर के पास गयी और इस प्रकार बोली- “खर! मेरी नाक कट गयी। इस अपमान के बाद मैं जीवित नहीं रह सकती। अब तो मेरा जीवन तभी रह सकता है, जबकि तुम मुझे राम का, उनकी पत्नी सीता का तथा उनके छोटे भाई लक्ष्मण का गरम-गरम रक्त पिलाओ।”
      खर ने उसको 'बहुत अच्छा' कहकर शान्त किया और दूषण तथा त्रिशिरा के साथ चौदह हज़ार राक्षसों की सेना ले श्री रामचन्द्र जी पर चढ़ाई की। श्रीराम ने भी उन सबका सामना किया और अपने बाणों से राक्षसों को बींधना आरम्भ किया। शत्रुओं की हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सहित समस्त चतुरंगिणी सेना को उन्होंने यमलोक पहुँचा दिया तथा अपने साथ युद्ध करने वाले भयंकर राक्षस खर दूषण एवं त्रिशिरा को भी मौत के घाट उतार दिया।
      अब शूर्पणखा लंका में गयी और रावण के सामने जा पृथ्वी पर गिर पड़ी। उसने क्रोध में भरकर रावण से कहा- “अरे! तू राजा और रक्षक कहलाने योग्य नहीं है। खर आदि समस्त राक्षसों को संहार करने वाले राम की पत्नी सीता को हर ले। मैं राम और लक्ष्मण का रक्त पीकर ही जीवित रहूँगी; अन्यथा नहीं।”
      शूर्पणखा की बात सुनकर रावण ने कहा- “अच्छा, ऐसा ही होगा।” फिर उसने मारीच से कहा- “तुम स्वर्णमय विचित्र मृग का रूप धारण करके सीता के सामने जाओ और राम तथा लक्ष्मण को अपने पीछे आश्रम से दूर हटा ले जाओ। मैं सीता का हरण करूँगा। यदि मेरी बात न मानोगे, तो तुम्हारी मृत्यु निश्चित है।”
      मारीच ने रावण से कहा- “रावण! धनुर्धर राम साक्षात मृत्यु हैं।” फिर उसने मन-ही-मन सोचा- “यदि नहीं जाऊँगा, तो रावण के हाथ से मरूंगा। इस प्रकार यदि मरना अनिवार्य है तो इसके लिये श्री राम ही श्रेष्ठ हैं, रावण नहीं क्योंकि श्रीराम के हाथ से मृत्यु होने पर मेरी मुक्ति हो जायेगी।”
      ऐसा विचार कर वह मृग रूप धारण करके सीता के सामने बार-बार आने-जाने लगा। तब सीता जी की प्रेरणा से श्री राम ने दूर तक उसका पीछा करके उसे अपने बाण से मार डाला। मरते समय उस मृग ने 'हा सीते! हा लक्ष्मण!' कहकर पुकार लगायी। उस समय सीता के कहने से लक्ष्मण अपनी इच्छा के विरुद्ध श्री रामचन्द्र जी के पीछे गये। इसी बीच में रावण ने भी मौक़ा पाकर सीता को हर लिया। मार्ग में जाते समय उसने गृध्रराज जटायु का वध किया। जटायु ने भी उसके रथ को नष्ट कर डाला था। रथ न रहने पर रावण ने सीता को कंधे पर बिठा लिया और उन्हें लंका में ले जाकर अशोक वाटिका में रखा। वहाँ सीता से बोला- “तुम मेरी पटरानी बन जाओ।” फिर राक्षसियों की ओर देखकर कहा- “निशाचरियो! इसकी रखवाली करो।”
       उधर श्री रामचन्द्र जी जब मारीच को मारकर लौटे, तो लक्ष्मण को आते देख बोले- “सुमित्रानन्दन! वह मृग तो मायामय था- वास्तव में वह एक राक्षस था; किंतु तुम जो इस समय यहाँ आ गये, इससे जान पड़ता है, निश्चय ही कोई सीता को हर ले गया।”
      श्री रामचन्द्र जी आश्रम पर गये; किंतु वहाँ सीता नहीं दिखायी दीं। उस समय वे आर्त होकर शोक और विलाप करने लगे- “हा प्रिये जानकी! तू मुझे छोड़कर कहाँ चली गयी?” लक्ष्मण ने श्रीराम को सांत्वना दी। तब वे वन में घूम-घूमकर सीता की खोज करने लगे।
      इसी समय इनकी जटायु से भेंट हुई। जटायु ने यह कहकर कि सीता को रावण हर ले गया है, प्राण त्याग दिये। तब श्रीरघुनाथ जी ने अपने हाथ से जटायु का दाह-संस्कार किया। इसके बाद इन्होंने कबन्ध का वध किया। कबन्ध ने शाप मुक्त होने पर श्रीरामचन्द्र जी से कहा कि आप सुग्रीव से मिलिये।

किष्किन्धाकाण्ड
      श्रीरामचन्द्र जी पम्पासरोवर पर जाकर सीता के लिये शोक करने लगे। वहाँ वे शबरी से मिले। फिर हनुमान जी से उनकी भेंट हुई। हनुमान जी उन्हें सुग्रीव के पास ले गये और सुग्रीव के साथ उनकी मित्रता करायी। श्रीरामचन्द्र जी ने सबके देखते-देखते ताड़ के सात वृक्षों को एक ही बाण से बींध डाला और दुन्दुभि नामक दानव के विशाल शरीर को पैर की ठोकर से दस योजन दूर फेंक दिया। इसके बाद सुग्रीव के शत्रु बाली को, जो भाई होते हुए भी उनके साथ बैर रखता था, मार डाला और किष्किन्धापुरी, वानरों का साम्राज्य, रूमा एवं तारा-इन सबको ऋष्यमूक पर्वत पर वानर राज सुग्रीव के अधीन कर दिया। सुग्रीव ने कहा- “श्रीराम! आपको सीताजी की प्राप्ति जिस प्रकार भी हो सके, ऐसा उपाय मैं कर रहा हूँ।”
      यह सुनने के बाद श्रीरामचन्द्र जी ने माल्यवान पर्वत के शिखर पर वर्षा के चार महीने व्यतीत किये और सुग्रीव किष्किन्धा में रहने लगे। चौमासे के बाद भी जब सुग्रीव दिखायी नहीं दिये, तब श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा से लक्ष्मण ने किष्किन्धा में जाकर कहा- “सुग्रीव! तुम श्रीरामचन्द्र जी के पास चलो। अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहो, नहीं तो बाली मर-कर जिस मार्ग से गया है, वह मार्ग अभी बंद नहीं हुआ है। अतएव बाली के पथ का अनुसरण न करो।”
       सुग्रीव ने कहा- “सुमित्रानन्दन! विषयभोग में आसक्त हो जाने के कारण मुझे बीते हुए समय का भान न रहा अत: मेरे अपराध को क्षमा कीजिये।” ऐसा कहकर वानर राज सुग्रीव श्रीरामचन्द्र जी के पास गये और उन्हें नमस्कार करके बोले- “भगवान! मैंने सब वानरों को बुला लिया है। अब आपकी इच्छा के अनुसार सीता जी की खोज करने के लिये उन्हें भेजूँगा। वे पूर्वादि दिशाओं में जाकर एक महीने तक सीताजी की खोज करें। जो एक महीने के बाद लौटेगा, उसे मैं मार डालूँगा।” यह सुनकर बहुत-से वानर पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशाओं के मार्ग पर चल पड़े तथा वहाँ जनक कुमारी सीता को न पाकर नियत समय के भीतर श्रीराम और सुग्रीव के पास लौट आये।
      हनुमान जी श्रीरामचन्द्र जी की दी हुई अँगूठी लेकर अन्य वानरों के साथ दक्षिण दिशा में जानकी जी की खोज कर रहे थे। वे लोग सुप्रभा की गुफ़ा के निकट विन्ध्यपर्वत पर ही एक मास से अधिक काल तक ढूँढ़ते फिरे; किंतु उन्हें सीता जी के दर्शन नहीं हुए। अन्त में निराश होकर आपस में कहने लगे- “हम लोगों को व्यर्थ ही प्राण देने पड़ेंगे। धन्य है वह जटायु, जिसने सीता के लिये रावण के द्वारा मारा जाकर युद्धमें प्राण त्याग दिये थे।”
       उनकी ये बातें सम्पाति नामक गृध्र के कानों में पड़ीं। वह वानरों के (प्राण त्याग की चर्चा से ) खाने की ताक में लगा था। किंतु जटायु की चर्चा सुनकर रूक गया और बोला- “वानरो! जटायु मेरा भाई था। वह मेरे ही साथ सूर्य मण्डल की ओर उड़ा चला जा रहा था। मैंने अपनी पाँखों की ओट में रखकर सूर्य की प्रखर किरणों के ताप से उसे बचाया। अत: वह तो सकुशल बच गया; किंन्तु मेरी पाँखें चल गयीं, इसलिये मैं यहीं गिर पड़ा। आज श्रीरामचन्द्र जी की वार्ता सुनने से फिर मेरे पंख निकल आये। अब मैं जानकी को देखता हूँ; वे लंका में अशोक-वाटिका के भीतर हैं। लवण समुद्र के द्वीप में त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी हुई है। यहाँ से वहाँ तक का समुद्र सौ योजन विस्तृत है। यह जान कर सब वानर श्रीराम और सुग्रीव के पास जायें और उन्हें सब समाचार बता दें।”

सुन्दरकाण्ड
      सम्पाति की बात सुनकर हनुमान और अंगद आदि वानरों ने समुद्र की ओर देखा। फिर वे कहने लगे- “कौन समुद्र को लाँघकर समस्त वानरों को जीवन-दान देगा?” वानरों की जीवन-रक्षा और श्रीरामचन्द्र जी के कार्य की प्रकृष्ट सिद्धि के लिये पवन कुमार हनुमान जी सौ योजन विस्तृत समुद्र को लाँघ गये। लाँघते समय अवलम्बन देने के लिये समुद्र से मैनाक पर्वत उठा। हनुमान जी ने दृष्टिमात्र से उसका सत्कार किया। फिर (छायाग्राहिणी) सिंहिका ने सिर उठाया। (वह उन्हें अपना ग्रास बनाना चाहती थी, इसलिये) हनुमानजी ने उसे मार गिराया।
       समुद्र के पार जाकर उन्होंने लंकापुरी देखी। राक्षसों के घरों में खोज की; रावण के अन्त:पुर में तथा कुम्भकर्ण, विभीषण, इन्द्रजित तथा अन्य राक्षसों के गृहों में जा-जाकर तलाश की; मद्यपान के स्थानों आदि में भी चक्कर लगाया; किंतु कहीं भी सीता उनकी दृष्टि में नहीं पड़ीं। अब वे बड़ी चिन्ता में पड़े। अन्त में जब अशोक वाटिका की ओर गये तो वहाँ शिंशपा-वृक्ष के नीचे सीता जी उन्हें बैठी दिखायी दीं। वहाँ राक्षसियाँ उनकी रखवाली कर रही थीं। हनुमान जी ने शिंशपा-वृक्ष पर चढ़कर देखा।
       रावण सीता जी से कह रहा था - “तू मेरी स्त्री हो जा”; किंतु वे स्पष्ट शब्दों में 'ना' कर रही थीं। वहाँ बैठी हुई राक्षसियाँ भी यही कहती थीं- “तू रावण की स्त्री हो जा।”
      जब रावण चला गया तो हनुमान जी ने इस प्रकार कहना आरम्भ किया- “अयोध्या में दशरथ नाम वाले एक राजा थे। उनके दो पुत्र राम और लक्ष्मण वनवास के लिये गये। वे दोनों भाई श्रेष्ठ पुरुष हैं। उनमें श्रीरामचन्द्र जी की पत्नी जनक कुमारी सीता तुम्हीं हो। रावण तुम्हें बलपूर्वक हर ले आया है। श्रीरामचन्द्र जी इस समय वानर राज सुग्रीव के मित्र हो गये हैं। उन्होंने तुम्हारी खोज करने के लिये ही मुझे भेजा है। पहचान के लिये गूढ़ संदेश के साथ श्रीरामचन्द्र जी ने अँगूठी दी है। उनकी दी हुई यह अँगूठी ले लो।”
      सीता जी ने अँगूठी ले ली। उन्होंने वृक्ष पर बैठे हुए हनुमान जी को देखा। फिर हनुमान जी वृक्ष से उतर कर उनके सामने आ बैठे, तब सीता ने उनसे कहा- “यदि श्रीरघुनाथ जी जीवित हैं तो वे मुझे यहाँ से ले क्यों नहीं जाते?”
      इस प्रकार शंका करती हुई सीता जी से हनुमान जी ने इस प्रकार कहा- “देवि सीते! तुम यहाँ हो, यह बात श्रीरामचन्द्र जी नहीं जानते। मुझसे यह समाचार जान लेने के पश्चात सेना सहित राक्षस रावण को मार कर वे तुम्हें अवश्य ले जायँगे। तुम चिन्ता न करो। मुझे कोई अपनी पहचान दो।”
      तब सीता जी ने हनुमान जी को अपनी चूड़ामणि उतार कर दे दी और कहा- “भैया! अब ऐसा उपाय करो, जिससे श्रीरघुनाथ जी शीघ्र आकर मुझे यहाँ से ले चलें। उन्हें कौए की आँख नष्ट कर देनेवाली घटना का स्मरण दिलाना; आज यहीं रहो कल सबेरे चले जाना; तुम मेरा शोक दूर करने वाले हो। तुम्हारे आने से मेरा दु:ख बहुत कम हो गया है।”
      चूड़ामणि और काक वाली कथा को पहचान के रूप में लेकर हनुमान जी ने कहा- “कल्याणि! तुम्हारे पतिदेव अब तुम्हें शीघ्र ही ले जायेँगे। अथवा यदि तुम्हें चलने की जल्दी हो, तो मेरी पीठ पर बैठ जाओ। मैं आज ही तुम्हें श्रीराम और सुग्रीव के दर्शन कराऊँगा।” सीता बोलीं- “नहीं, श्रीरघुनाथ जी ही आकर मुझे ले जायेँ।”
      तदनन्तर हनुमान जी ने रावण से मिलने की युक्ति सोच निकाली। उन्होंने रक्षकों को मार कर उस वाटिका को उजाड़ डाला। फिर दाँत और नख आदि आयुधों से वहाँ आये हुए रावण के समस्त सेवकों को मारकर सात मन्त्रि कुमारों तथा रावण पुत्र अक्षय कुमार को भी यमलोक पहुँचा दिया। तत्पश्चात इन्द्रजीत ने आकर उन्हें नागपाश से बाँध लिया और उन वानर वीर को रावण के पास ले जाकर उससे मिलाया। उस समय रावण ने पूछा- “तू कौन है?” तब हनुमान जी ने रावण को उत्तर दिया- “मैं श्रीरामचन्द्र जी का दूत हूँ। तुम श्री सीताजी को श्री रघुनाथजी की सेवा में लौटा दो; अन्यथा लंका निवासी समस्त राक्षसों के साथ तुम्हें श्रीराम के बाणों से घायल होकर निश्चय ही मरना पड़ेगा।”
      यह सुनकर रावण हनुमान जी को मारने के लिये उद्यत हो गया; किंतु विभीषण ने उसे रोक दिया। तब रावण ने उनकी पूँछ में आग लगा दी। पूँछ जल उठी। यह देख पवन पुत्र हनुमान जी ने राक्षसों की पूरी लंका को जला डाला और सीता जी का पुन: दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया। फिर समुद्र के पार आकर अंगद आदि से कहा- “मैंने सीता जी के दर्शन कर लिए हैँ।”
       तत्पश्चात् अंगद आदि के साथ सुग्रीव के मधुवन में आकर, दधिमुख आदि रक्षकों को परास्त करके, मधुपान करने के अनन्तर वे सब लोग श्रीरामचन्द्र जी के पास आये और बोले- “सीताजी के दर्शन हो गये।” तब श्रीरामचन्द्र जी अत्यन्त प्रसन्न होकर हनुमान जी से बोले- “कपिवर! तुम्हें सीता के दर्शन कैसे हुए? उसने मेरे लिये क्या संदेश दिया है? मैं विरह की आग में जल रहा हूँ। तुम सीता की अमृतमयी कथा सुनाकर मेरा संताप शान्त करो।”
      यह सुनकर हनुमान जी ने रघुनाथ जी से कहा- “भगवान्! मैं समुद्र लाँघकर लंका में गया था! वहाँ सीता जी के दर्शन करके, लंकापुरी को जलाकर यहाँ आ रहा हूँ। यह सीताजी की दी हुई चूड़ामणि लीजिये। आप शोक न करें; रावण का वध करने के पश्चात निश्चय ही आपको सीता जी की प्राप्ति होगी।”
      श्रीरामचन्द्र जी उस मणि को हाथ में ले, विरह से व्याकुल होकर रोने लगे और बोले- “इस मणि को देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो मैंने सीता को ही देख लिया। अब मुझे सीता के पास ले चलो; मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकता।” उस समय सुग्रीव आदि ने श्रीरामचन्द्र जी को समझा-बुझाकर शान्त किया।
      उसके बाद श्रीरघुनाथ जी समुद्र के तट पर गये। वहाँ उनसे विभीषण आकर मिले। विभीषण के भाई दुरात्मा रावण ने उनका तिरस्कार किया था। विभीषण ने इतना ही कहा था कि “भैया! आप सीता को श्रीरामचन्द्र जी की सेवा में समर्पित कर दीजिये।” इसी अपराध के कारण उसने इन्हें ठुकरा दिया था। अब वे असहाय थे। श्रीरामचन्द्र जी ने विभीषण को अपना मित्र बनाया और लंका के राजपद पर अभिषिक्त कर दिया।
      इसके बाद श्रीराम ने समुद्र से लंका जाने के लिये रास्ता माँगा। जब उसने मार्ग नहीं दिया तो उन्होंने बाणों से उसे बींध डाला। अब समुद्र भयभीत होकर श्रीरामचन्द्र जी के पास आकर बोला- “भगवन्! नल के द्वारा मेरे ऊपर पुल बँधाकर आप लंका में जाइये। पूर्वकाल में आप ही ने मुझे गहरा बनाया था।” यह सुनकर श्रीरामचन्द्र जी ने नल के द्वारा वृक्ष और शिलाखण्डों से एक पुल बँधवाया और उसी से वे वानरों सहित समुद्र के पार गये। वहाँ सुवेल पर्वत पर पड़ाव डाल कर वहीं से उन्होंने लंका पुरी का निरीक्षण किया।

युद्धकाण्ड
      तदनन्तर श्रीरामचन्द्र जी के आदेश से अंगद रावण के पास गये और बोले- “रावण! तुम जनक कुमारी सीता को ले जाकर शीघ्र ही श्रीरामचन्द्र जी को सौंप दो। अन्यथा मारे जाओगे।” यह सुनकर रावण उन्हें मारने को तैयार हो गया। अंगद राक्षसों को मार-पीटकर लौट आये और श्रीरामचन्द्र जी से बोले- “भगवन्! रावण केवल युद्ध करना चाहता है।”
      अंगद की बात सुनकर श्रीराम ने वानरों की सेना साथ ले युद्ध के लिये लंका में प्रवेश किया। हनुमान, मैन्द, द्विविद, जाम्बवान, नल, नील, तार, अंगद, धूम्र, सुषेण, केसरी, गज, पनस, विनत, रम्भ, शरभ, महाबली कम्पन, गवाक्ष, दधिमुख, गवय और गन्धमादन- ये सब तो वहाँ आये ही, अन्य भी बहुत-से वानर आ पहुँचे। इन असंख्य वानरों सहित कपिराज सुग्रीव भी युद्ध के लिये उपस्थित थे। फिर तो राक्षसों और वानरों में घमासान युद्ध छिड़ गया। राक्षस वानरों को बाण, शक्ति और गदा आदि के द्वारा मारने लगे और वानर रख, दाँत, एवं शिला आदि के द्वारा राक्षसों का संहार करने लगे। राक्षसों की हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों से युक्त चतुरंगिणी सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गयी। हनुमान ने पर्वत शिखर से अपने वैरी धूम्राक्ष का वध कर डाला। नील ने भी युद्ध के लिये सामने आये हुए अकम्पन और प्रहस्त को मौत के घाट उतार दिया।
       श्रीराम और लक्ष्मण यद्यपि इन्द्रजीत के नागास्त्र से बंध गये थे, तथापि गरुड़ की दृष्टि पड़ते ही उससे मुक्त हो गये। तत्पश्चात् उन दोनों भाइयों ने बाणों से राक्षसी सेना का संहार आरम्भ किया। श्रीराम ने रावण को युद्ध में अपने बाणों की मार से जर्जरित कर डाला। इससे दु:खित होकर रावण ने कुम्भकर्ण को सोते से जगायां जागने पर कुम्भकर्ण ने हज़ार घड़े मदिरा पीकर कितने ही भेंस आदि पशुओं का भक्षण किया।
      फिर रावण से कुम्भकर्ण बोला - “सीता का हरण करके तुमने पाप किया है। तुम मेरे बड़े भाई हो, इसलिये तुम्हारे कहने से युद्ध करने जाता हूँ। मैं वानरों सहित राम को मार डालूँगा।”
      ऐसा कहकर कुम्भकर्ण ने समस्त वानरों को कुचलना आरम्भ किया। एक बार उसने सुग्रीव को पकड़ लिया, तब सुग्रीव ने उसकी नाक और कान काट लिये। नाक और कान से रहित होकर वह वानरों का भक्षण करने लगा। यह देख श्रीरामचन्द्र जी ने अपने बाणों से कुम्भकर्ण की दोनों भुजाएँ काट डालीं। इसके बाद उसके दोनों पैर तथा मस्तक काट कर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया। तदनन्तर कुम्भ, निकुम्भ, राक्षसमकराक्ष, महोदर, महापार्श्व, देवान्तक, नरान्तक, त्रिशिरा और अतिकाय युद्ध में कूद पड़े। तब इनको तथा और भी बहुत-से युद्ध परायण राक्षसों को श्रीराम, लक्ष्मण, विभीषण एवं वानरों ने पृथ्वी पर सुला दिया।
       तत्पश्चात् इन्द्रजीत (मेघनाद) ने माया से युद्ध करते हुए वरदान में प्राप्त हुए नागपाश द्वारा श्रीराम और लक्ष्मण को बाँध लिया। उस समय हनुमान जी के द्वारा लाये हुए पर्वत पर उगी हुई 'विशल्या' नाम की औषधि से श्रीराम और लक्ष्मण के घाव अच्छे हुए। उनके शरीर से बाण निकाल दिये गये। हनुमान जी पर्वत को जहाँ से लाये थे, वहीं उसे पुन: रख आये।
      इधर मेघनाद निकुम्भिला देवी के मन्दिर में होम आदि करने लगा। उस समय लक्ष्मण ने अपने बाणों से इन्द्र को भी परास्त कर देने वाले उस वीर को युद्ध में मार गिराया। पुत्र की मृत्यु का समाचार पाकर रावण शोक से संतप्त हो उठा और सीता को मार डालने के लिये उद्यत हो उठा; किंतु अविन्ध्य के मना करने से वह मान गया और रथ पर बैठकर सेना सहित युद्ध भूमि में गया। तब इन्द्र के आदेश से मातलि ने आकर श्रीरघुनाथ जी को भी देवराज इन्द्र के रथ पर बिठाया।
      श्रीराम और रावण के बीच भयंकर युद्ध होने लगा। रावण वानरों पर प्रहार करता था और हनुमान आदि वानर रावण को चोट पहुँचाते थे। जैसे मेघ पानी बरसाता है, उसी प्रकार श्रीरघुनाथ जी ने रावण के ऊपर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा आरम्भ कर दी। उन्होंने रावण के रथ, ध्वज, अश्व, सारथि, धनुष, बाहु और मस्तक काट डाले। काटे हुए मस्तकों के स्थान पर दूसरे नये मस्तक उत्पन्न हो जाते थे। यह देखकर श्रीरामचन्द्र जी ने ब्रह्मास्त्र के द्वारा रावण का वक्ष; स्थल विदीर्ण करके उसे रणभूमि में गिरा दिया। उस समय मरने से बचे हुए सब राक्षसों के साथ रावण की अनाथा स्त्रियाँ विलाप करने लगीं। तब श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा से विभीषण ने उन सबको सान्त्वना दे, रावण के शव का दाह-संस्कार किया।
      तदनन्तर श्रीरामचन्द्र जी ने हनुमान जी के द्वारा सीताजी को बुलवाया। यद्यपि वे स्वरूप से ही नित्य शुद्ध थीं, तो भी उन्होंने अग्नि में प्रवेश करके अपनी विशुद्धता का परिचय दिया। तत्पश्चात् रघुनाथ जी ने उन्हें स्वीकार किया। इसके बाद इन्द्रादि देवताओं ने उनका स्तवन किया। फिर ब्रह्मा जी तथा स्वर्गवासी महाराज दशरथ ने आकर स्तुति करते हुए कहा- “श्रीराम! तुम राक्षसों का संहार करने वाले साक्षात श्रीविष्णु हो।” फिर श्रीराम के अनुरोध से इन्द्र ने अमृत बरसाकर मरे हुए वानरों को जीवित कर दिया। समस्त देवता युद्ध देखकर, श्रीरामचन्द्र जी के द्वारा पूजित हो, स्वर्गलोक में चले गये। श्रीरामचन्द्र जी ने लंका का राज्य विभीषण को दे दिया और वानरों का विशेष सम्मान किया।
      फिर सबको साथ ले, सीता सहित पुष्पक विमान पर बैठकर श्रीराम जिस मार्ग से आये थे, उसी से लौट चले। मार्ग में वे सीता को प्रसन्नचित्त होकर वनों और दुर्गम स्थानों को दिखाते जा रहे थे। प्रयाग में महर्षि भारद्वाज को प्रणाम करके वे अयोध्या के पास नन्दिग्राम में आये। वहाँ भरत ने उनके चरणों में प्रणाम किया। फिर वे अयोध्या में आकर वहीं रहने लगे। सबसे पहले उन्होंने महर्षि वशिष्ठ आदि को नमस्कार करके क्रमश: कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा के चरणों में मस्तक झुकाया। फिर राज्य-ग्रहण करके ब्राह्मणों आदि का पूजन किया। अश्वमेध यज्ञ करके उन्होंने अपने आत्म स्वरूप श्रीवासुदेव का यजन किया, सब प्रकार के दान दिये और प्रजाजनों का पुत्रवत पालन करने लगे। उन्होंने धर्म और कामादिका भी सेवन किया तथा वे दुष्टों को सदा दण्ड देते रहे। उनके राज्य में सब लोग धर्मपरायण थे तथा पृथ्वी पर सब प्रकार की खेती फली-फूली रहती थी। श्रीरघुनाथजी के शासनकाल में किसी की अकाल मृत्यु भी नहीं होती थी।

उत्तरकाण्ड
      जब रघुनाथ जी अयोध्या के राजसिंहासन पर आसीन हो गये, तब अगस्त्य आदि महर्षि उनके दर्शन करने के लिये गये। वहाँ उनका भली-भाँति स्वागत-सत्कार हुआ। तदनन्तर उन ऋषियों ने कहा- “भगवन्! आप धन्य हैं, जो लंका में विजयी हुए और इन्द्रजीत जैसे राक्षस को मार गिराया। अब हम उनकी उत्पत्ति कथा बतलाते हैं, सुनिये–
      ब्रह्माजी के पुत्र मुनिवर पुलस्त्य हुए और पुलस्त्य से महर्षि विश्रवा का जन्म हुआ। उनकी दो पत्नियाँ थीं- पुण्योत्कटा और कैकसी । उनमें पुण्योत्कटा ज्येष्ठ थी। उसके गर्भ से धनाध्यक्ष कुबेर का जन्म हुआ। कैकसी के गर्भ से पहले रावण का जन्म हुआ, जिसके दस मुख और बीस भुजाएँ थीं। रावण ने तपस्या की और ब्रह्माजी ने उसे वरदान दिया, जिससे उसने समस्त देवताओं को जीत लिया। कैकसी के दूसरे पुत्र का नाम कुम्भकर्ण और तीसरे का विभीषण था। कुम्भकर्ण सदा नींद में ही पड़ा रहता था; किंतु विभीषण बड़े धर्मात्मा हुए। इन तीनों की बहन शूर्पणखा हुई। रावण से मेघनाद का जन्म हुआ। उसने इन्द्र को जीत लिया था, इसलिये 'इन्द्रजीत' के नाम से उसकी प्रसिद्ध हुई। वह रावण से भी अधिक बलवान था। परंतु देवताओं आदि के कल्याण की इच्छा रखने वाले आपने लक्ष्मण के द्वारा उसका वध करा दिया।” ऐसा कहकर वे अगस्त्य आदि ब्रह्मर्षि श्रीरघुनाथ जी के द्वारा अभिनन्दित हो अपने-अपने आश्रम को चले गये।
      तदनन्तर देवताओं की प्रार्थना से प्रभावित श्रीरामचन्द्र जी के आदेश से शत्रुघ्न ने लवणासुर को मार कर एक पुरी बसायी, जो 'मथुरा' नाम से प्रसिद्ध हुई। तत्पश्चात् भरत ने श्रीराम की आज्ञा पाकर सिन्धु-तीर-निवासी शैलूष नामक बलोन्मत्त गन्धर्व का तथा उसके तीन करोड़ वंशजों का अपने तीखे बाणों से संहार किया। फिर उस देश के गान्धार और मद्र दो विभाग करके, उनमें अपने पुत्र तक्ष और पुष्कर को स्थापित कर दिया।
      इसके बाद भरत और शत्रुघ्न अयोध्या में चले आये और वहाँ श्रीरघुनाथ जी की आराधना करते हुए रहने लगे। श्रीरामचन्द्र जी ने दुष्ट पुरुषों का युद्ध में संहार किया और शिष्ट पुरुषों का दान आदि के द्वारा भली-भाँति पालन किया। उन्होंने लोकापवाद के भय से अपनी धर्मपत्नी सीता को वन में छोड़ दिया था। वहाँ वाल्मीकि मुनि के आश्रम में उनके गर्भ से दो श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम कुश और लव थे। उनके उत्तम चरित्रों को सुनकर श्रीरामचन्द्र जी को भली-भाँति निश्चय हो गया कि ये मेरे ही पुत्र हैं। तत्पश्चात् उन दोनों को कौसल के दो राज्यों पर अभिषिक्त करके, 'मैं ब्रह्म हूँ' इसकी भावनापूर्वक प्रार्थना से भाइयों और पुरवासियों सहित अपने परमधाम में प्रवेश किया। अयोध्या में ग्यारह हज़ार वर्षों तक राज्य करके वे अनेक यज्ञों का अनुष्ठान कर चुके थे। उनके बाद सीता के पुत्र कौसल जनपद के राजा हुए।
       अग्निदेव कहते हैं- “वशिष्ठजी! देवर्षि नारद से यह कथा सुनकर महर्षि वाल्मीकि ने विस्तार पूर्वक रामायण नामक महाकाव्य की रचना की। जो इस प्रसंग को सुनता है, वह स्वर्ग लोक को जाता है।
भगवान राम की जय                                  सीता माता की जय                                   पवनसुत हनुमान की जय

Thursday 1 December 2011

राधा-राधा

तू भी राधा मैं भी राधा -जग में भी पाया राधा-राधा ;
तेरी मोहनी मूरत को ;हर रोज पुकारू राधा-राधा ;
कोई कहे राधा है श्याम;कोई श्याम को कहता राधा ,
नयना जब बंद किये अपने ;हर जीव में पाया राधा-राधा !!!(विवेक मिश्र )

ब्राह्मण के पग-पग से कम्पित होती है यह धरा

ब्राह्मण के हर पग पग से कम्पित होती हे यह धारा.

नभ मंडल पुष्प वृष्टि से गाता हे उसकी ही महिमा,
परशुराम के वंशज हे हम क्षत्रिय हमारी ताकत हे,
वैश्यों के ही सामर्थ्य से वैभव ब्राह्मण का बालक हे,
विश्व गुरु हम विश्व पुरुष हे विष्णु को भी ज़ुकाते हे,
निर्णय कर ले एक बार जो रूद्र को भी कंपाते हे,
शिव रूद्र का सामर्थ्य हे हम में नहीं किसी से डरते हे
ऋषि मुनि यह पुनीत धरा में देखो ज्ञान का सिंचन करते हे,
आर्य हे हम यह धारा के विश्व में सब से श्रेष्ठ हे.
"कृण्वन्तो विश्वं आर्यम" गर्जनाद हम करते हे.
सनातन वैदिक धर्म हे हमारा मनु ऋषि की संताने हे,
आँख उठाकर देखना भी मत तांडव मृत्यु का कर देंगे.
माँ संस्कृति की आँख में आंसू अब नहीं सहे जायेंगे
राम और कृष्ण को लेकर विजय डंका बजायेंगे.
नत नत मस्तक हे माँ भारती तव गुण गान हम गाते हे
अखंड आर्यावर्त हमारी कल्पना साकारित कर दिखलायेंगे.
श्री राम चंद्र-हनुमान की आज शपथ हम खाते हे.
समूचे विश्व में "हर हर महादेव" यही नाद गुन्जायेंगे.
वेदांत केसरी जब तक गरजा नहीं हे गरजे तब तक सियाले हे.
वेद-उपनिषद के गर्जनाद से मौन सारे धर्म हे.
यहाँ देखो गायत्री मंत्र आज भी उर्जा जगाता हे
रामायण-महाभारत आदि मानव गौरव जगाता हे.
मनु स्मृति हे संविधान विश्व का महिमा उसकी जगाएंगे.
"जय श्री राम" का गर्जनाद हर घर में हम फेलायेंगे,
अयोध्या हे हमारी भूमि जहा श्री राम चंद्र जी नाचे थे
बाबर हों या बाबरी चाहे हुकूमत राम की दिखायेंगे.
बौद्धादी धर्म का पाखण्ड जब आचार्य शंकर तोडते हे
कुमारिल भट्ट मंडन मिश्र जागृत हों माँ भारती के अश्रु पोछते हे.
चाणक्य की वह गरिमा देखो राष्ट्र प्रेम जगाती हे.
भगत सिंह की प्रतिमा आज भी युवा को दिशा दे जाती हे.
क्यों हों मौन हे आर्य वंशजो जागो माँ संस्कृति पुकारती हे
विवेकानंद के बालको दिखलादो श्रेष्ठ विश्व में हम ही हे.
हिंदू-भगवा व्याप्त करेंगे आर्यावर्त में संकल्प हमारा हे
रहीम भी अब राम बनेंगे हर हर महादेव उद्गार करेन्गे.
यही संकल्प हर हिंदू का हों यही निर्देश माँ भारती का हे.


नमः पार्वती पते हर हर महादेव.
- समर्पण त्रिवेदी वेदान्ताचार्य

Wednesday 30 November 2011

ब्राह्मण परिचय मेरी कविता में

मैं ब्राह्मण हूँ,
धर्म युद्ध को सदैव तत्पर,कर्तव्य हेतु सदैव अग्रसर;
परशुराम का हूँ मैं वंशज और उच्च कुल मैं रावण हूँ
मैं ब्राह्मण हूँ,
सनातनो का मैं हूँ वाहक ,वेद-पुरानो का मैं पालक ;
दत्तात्रेय सा मैं हूँ श्रेष्ठ ,दुस्तो का हूँ मैं संहारक
नहीं प्रशंसा का मैं चाहक,द्रव्यों का ना मैं ग्राहक
समस्त जीवो में प्रभु राम का अति-प्रिय हूँ ;
मैं ब्राह्मण हूँ,
अविरल है अपनी ज्ञान की गंग,ब्रह्मा का मैं विशेष अंग;
सतयुग से अब तक अभंग,कपट से अपने कर हैं तंग;
जीवो के हम है आद ,शाश्त्रो के हम शंखनाद
गुण में श्रेष्ठ निर्विवाद ,औ जन हित का मैं तोरण हूँ
मैं ब्राह्मण हूँ,
कर्मकांड का मैं परिचायक,मुक्तिमार्ग का मैं हू नायक;
दिव्य भूमि का मैं अधिनायक,भक्ति भाव का मैं गायक;
काँधे पर उपवीत रखे हूँ ,चोटी को निज शीश धरे हूँ ;
सद्मार्ग पर ले जाने वाला जीवन का मैं आचरण हूँ!!
मैं ब्राह्मण हूँ,.....................................................!!!!!!!
(विवेक मिश्र )